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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> हनुमत् चरित (मानस मंथन-2)

हनुमत् चरित (मानस मंथन-2)

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4345
आईएसबीएन :0000

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मानस मंथन का द्वितीय रत्न हनुमत् चरित

Hanumat Charit

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीरामः शरणं मम।।
।।श्री गुरवे नमः।।

तुम सम ईश कृपालु परमहित पुनि न पाइहौं हेरे....

हे गुरुदेव ! आपका मंगलमय सान्निध्य, सुशीतल स्पर्श, दिव्य दर्शन, मोहान्धकार को समाप्त कर देने वाले सूर्य किरणों के समान आपके वचन हमें और हमारे परिवार को पुलकित करते रहते हैं। आपको पाकर हम सब धन्य हो गए। हमारा जीवन और हमारा उद्देश्य भी धन्य हो गया।

परम पूज्य शरणागत्वत्सल गुरुदेव श्रीरामकिंकरजी महाराज के चरणों में साष्टांग प्रणाम सहित समर्पित।

महाराजश्री : एक परिचय


प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे  पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।
 
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।  

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग  प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो  जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

रामायणम ट्रस्ट पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदास जी को पढ़ा जा सकता है और उन्हीं की वाणी से उन्हें सुना भी जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदास के हृदय को समझ पाना असम्भव है।

रामायणम् आश्रम अयोध्या जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों मत-मतान्तरों वाले लोग साहित्य प्राप्त करने आते हैं, तो महाराजश्री के प्रति वे ऐसी भावनाएं उड़ेलती हैं मानों कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरित मानस के पूरे घटनाक्रम को और प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और घटनाएँ आपके जीवन का सत्य हैं। हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन का परिचय देते हैं।

रामायणम, ट्रस्ट के सचिव श्री मैथिलीशरण शर्मा ‘भाईजी’ विगत 29 वर्षों से महाराजश्री की साहित्यिक सेवा का प्रमुख कार्य देख रहे हैं। इतने वर्षों से मैं यही देखती हूँ कि वे प्रतिदिन यही सोचते रहते हैं कि किस तरह महाराजश्री के विचार अधिक लोगों तक पहुँचें। साथ ही उनके सहयोगी डा. चन्द्रशेखर तिवारी इस महत्कार्य को पूर्ण करने में अपना योगदान देते हैं, उनको भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूँ। रामायणम् भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूं। रामायणम् ट्रस्ट से सभी ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार प्रसार-प्रसार में जनता को दिशा एवं दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। पाठकों के प्रति मेरी हार्दिक मंगलकामनाएं !


प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी



सम्पादकीय


आदरणीय पण्डित रामकिंकर उपाध्याय ने भारतीय विद्या भवन की नागपुर शाखा के तत्त्वावधान में नवम्बर, 1973 में ‘रामचरितमानस’ पर जो आठ व्याख्यान दिए थे, उन्हें संग्रहीत कर ‘मानस-मन्थन’ प्रथम रत्न के नाम से प्रकाशित किया गया था। लोगों ने उसे इतना अधिक पसन्द किया कि एक वर्ष के भीतर ही भारतीय विद्या भवन को उसका दूसरा संस्करण निकालने के लिए बाध्य होना पड़ा। साथ ही लोगों की यह भी माँग रही कि पण्डितजी द्वारा 1974 तथा 1975 में प्रदत्त व्याख्यानमालाएँ भी इसी प्रकार पुस्तकाकार में प्रकाशित की जाएं।

जिन्हें पण्डित रामकिंकरजी के प्रवचनों को सुनने का एक बार भी सुअवसर प्राप्त हुआ है। वे उनके प्रवचनों को सर्वदा सुनने के लिए लालायित रहते हैं और साथ ही उनकी यह भी इच्छा रहती है कि ये प्रवचन यदि लिपिबद्ध हो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो जाएं, तो सदैव उनका लाभ मिलता रहे। वैसे पण्डितजी जितने प्रगल्भ वक्ता हैं, उतने ही प्रखर लेखक भी तथापि लेखक और प्रवचन में कुछ भिन्नता होती है। लेखक में व्यक्ति बुद्धिप्रधान हुआ करता है, जबकि प्रवचन में हृदयप्रधान और रसत्व तो हृदय का ही धर्म है, बुद्धि का नहीं। यही कारण है कि ‘मानस-मन्थन’ अपने ही ढंग की पुस्तक है, जिसमें पाठकों को विशेष रस की उपलब्धि होती है। इसे दृष्टिगत करते हुए नागपुर में पण्डितजी द्वारा 24 नवम्बर से 1 दिसम्बर, 1974 तक प्रदत्त आठ व्याख्यानों को ‘मानस-मन्थन’ द्वितीय रत्न के नाम से प्रकाशित करने की योजना बनी, जिसमें बहुमत का चरित का बड़ा ही सुन्दर विवेचन है। वैसे तो पण्डित कलकत्ते में 120 दिन तक प्रवचन करके भी ‘हनुमत् चरित’ की व्याख्या पूरी न कर सके, तथापि इन आठ दिनों की व्याख्यानमाला में उन्होंने जो रस उड़ेला है, वह जिज्ञासु और भावप्रधान पाठकों को आह्लाद और संतोष दोनों का हेतु है।

टेप में बन्द प्रवचनों को लिखना और उनका सम्पादन करना कितना दुस्साध्य कार्य है यह वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने यह कार्य किया है। इसमें असीम धैर्य और सर्वोपरि, निष्ठा की आवश्यकता होती है। रायपुर के रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम के ही मानससेवी कार्यकर्ता पं. हरिप्रसाद द्विवेदी ने इन व्याखानों को टेप से लिखने में जिस असीम धैर्य का परिचय दिया है, वह सचमुच श्लाघनीय है और हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।

इस व्याख्यानमाला का उद्घाटन करते हुए भारत के केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री डॉ. कर्णसिंह जी ने जो उद्बोधक भाषण दिया था, वह इस व्याख्यासंग्रह के लिए उत्कृष्ट भूमिका स्वरूप है। अतः उसे भूमिका के स्थान पर रखा गया है।

श्रीहनुमान जी की कृपा से ही पण्डितजी के इन व्याख्यानों का ग्रन्थ के रूप में सम्पादकीय सम्भव हो सका है। आशा है, ‘मानस-मन्थन’ का यह द्वितीय रत्न भी प्रथम रत्न की भाँति लोकप्रिय होगा और रामकथारस-रसिकों द्वारा समादृत होगा।

 
-स्वामी आत्मानन्द


डॉ. कर्णसिंह का उद्घाटन भाषण



आदरणीय स्वामीजी महाराज ! आदरणीय पण्डित रामकिंकर उपाध्यायजी ! नागपुर निवासी महानुभावों ! माताओ, भाइयों एवं बहनों !

आज मानव अपने आपको एक चौराहे पर खड़ा पाता है। वैसे विज्ञान ने मानवजाति को बहुत से लाभ दिए हैं, लेकिन उस लाभ के साथ-साथ उसने कुछ खतरे भी पैदा कर दिए हैं, जो पहले शायद इस रूप में मानव के सामने कभी नहीं थे। कभी-कभी तो ऐसा लगता है और वह समूचे भारतवर्ष को, यही नहीं बल्कि सारे संसार को भी खतरे में डालने जा रहा है। मैंने देश-विदेशों का भ्रमण किया है और मैंने देखा है कि जो गरीब देश हैं, वे तो दुःखी हैं ही; पर जो अमीर देश हैं, वे भी दुखी हैं। जब हम गरीब देश को देखते हैं, तो वास्तव में लगता है इनके पास दिक्कते हैं, परन्तु फिर भी वे कुछ सन्तुष्ट से मालूम पड़ते हैं। पर जिनके पास भौतिक सम्पदा की कमी नहीं, कोई भौतिक अभाव नहीं, वे तो बड़े ही असन्तुष्ट और विक्षुब्ध दिखाई देते हैं। वास्तव में, विशाल मानवसमाज के समुद्र का मन्थन होता रहता है। मानव प्राचीनता को छोड़ रहा है और नवीनता की खोज में जूझ रहा है। वह अपने आपको अतीत और भविष्य के बीच में पाता है। पिछला व्यक्ति मर रहा है और अगले ने अभी जन्म नहीं लिया और हम अपने को इन दोनों के बीच में पाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि हम प्रेरणा कहाँ से ग्रहण करें ?

एक विचारधारा तो यह है कि हमें अपनी प्राचीन संस्कृति को त्याग कर पुरानी सब मान्यताओं को छोड़कर आगे की कोशिश करनी चाहिए लेकिन हम यह भी देखते हैं कि जो देश ऐसा करते हैं, उनकी स्थिति कोई अच्छी नहीं है, उन्हें भी बहुत कष्ट सहना पड़ रहा है। दूसरी विचारधारा कहती है कि हम क्यों न पहले जैसे ही रहें, अपनी प्राचीन परम्परा के गीत गाते रहें। उसी से हमारा निर्वाह हो जाएगा। पर ऐसी दशा में यह विचार मन में उठता है कि यदि हम युग के अनुरूप, समय की रफ्तार के साथ नहीं चलेंगे, तो हम एक नया देश नहीं बना सकेंगे।

इस पृष्ठभूमि में विचार करने पर प्रतीत होता है कि हमें अतीत और भविष्य, प्राचीन और नवीन, पराविद्या और अपराविद्या, ज्ञान और विज्ञान का समन्वयपूर्ण उज्ज्वल स्पन्दन चाहिए। जब तक ऐसा समन्वय नहीं होगा, वह संगम नहीं होगा, तब तक न तो हमारा देश ही आगे बढ़ सकता है, न समूची मानवजाति ही, तब हमारा विश्व उसी उथल-पुथल में, इसी समुद्र-मन्थन में रहेगा और आप तो जानते हैं, समुद्र-मन्थन में पहले विष निकलता है, तत्पश्चात् अमृत और अन्य रत्न निकलते हैं। आज हमें इस मन्थन का विष ही प्राप्त हो रहा है। जिसे पीने के लिए हम बाध्य हैं। ऐसी स्थति में हमें प्राचीन परम्परा से–वेदों, उपानिषदों, भगवद्गीता, महाभारत और रामायण आदि ग्रन्थों से बहुत बल मिल सकता है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हम उस प्राचीन युग में चले जाएं, बल्कि मतलब है कि हमारी इस प्राचीन परम्परा में, हमारे इन ग्रन्थों में जो ज्ञान और शक्ति निहित है, उसका उपयोग हम आज की परिस्थिति में करें।

 तब कहीं हम अपने जीवन में इस सबका लाभ उठा सकते हैं और विशेषकर रामकथा तो ऐसी अद्भुत है, जिसका प्रभाव न केवल हमारे देश पर पड़ा है, बल्कि इस संसार में जहाँ-जहाँ भारतीय सभ्यता और संस्कृति रही है, उन समस्त स्थानों पर वह वर्षों से अपना प्रभाव डालती चली आ रही है। जहाँ भी भारतीय सभ्यता है, संस्कृति है, वहां राम कथा गायी जाती है- उस देश की अपनी भाषा में रामकथा का गान होता है। वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण महाकाव्य तो प्रसिद्ध ही है, पर भारत की हर भाषा में रामकथा की रचना है और तुलसीदासजी का ‘रामचरितमानस’ तो, जिसकी चतुश्शती हमने अभी-अभी सारे देश में मनाई है, एक ऐसा अपूर्व ग्रन्थ है, जिसके विषय में हम भला क्या कहें ? वह तो पण्डित रामकिंकरजी महाराज कहेंगे, हम कहने में समर्थ नहीं हैं। तुलसीदासजी ने रामकथा को पाण्डित्य के दायरे से निकलकर जन-जन तक पहुँचाया है।   

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